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प्रभासक्षेत्र का प्रलय और श्रीकृष्ण की अंतिम लीला |Mahabharat-6 MausalParva Ch:2 Bhag-2

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⁣प्रभासक्षेत्र का प्रलय और श्रीकृष्ण की अंतिम लीला |Mahabharat-6 MausalParva Ch:2 Bhag-2
"मित्रो! #mahabharat
“यदुवंश का विनाश – मौसलपर्व (भाग 2)” की कथा में आपका हार्दिक स्वागत है।

पिछले भाग में आपने देखा… भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब ने ऋषियों के साथ मज़ाक किया। उस मज़ाक के कारण उसे और पूरे यदुवंश को भयानक शाप मिला। ऋषियों ने कहा—यादवों का विनाश एक मौसल, एक लोहे के मुसल से ही होगा।

महाराज उग्रसेन ने तत्काल उस मुसल को चूर्ण बनवाया और समुद्र में फिंकवा दिया। लेकिन… क्या सचमुच इससे यदुवंश का विनाश टल सकेगा? क्या शाप को रोका जा सकता है? यह तो कथा जैसे आगे बढ़ेगी तब ही इसका पता चलेगा



भगवान की लीला कितनी गहरी है, इसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी नहीं समझ पाते। भविष्य में जो लिखा है, वही घटित होता है। विधि का विधान कोई नहीं टाल सकता।

भगवान कर्म का विधान बनाते हैं, लेकिन स्वयं कभी किसी के कर्म में बाधा नहीं डालते। न ही किसी को जबरन रोकते है ।
जैसे—महाभारत युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र और दुर्योधन को शान्ति का संदेश दिया था। परन्तु… क्या उन्होंने उसे माना? नहीं! और भगवान ने उन्हें मानने के लिए बाध्य भी नहीं किया।

सत्य यही है—कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र है… लेकिन फल भोगने में नहीं। उसका न्याय केवल भगवान करते हैं।

मेरे पूज्य गुरु श्री रामसुखदासजी कहा करते थे—“ज्ञानी पुरुष आपको समाधान बता देंगे, पर उसे मानने के लिए कभी विवश नहीं करेंगे।”
यही नियम भगवान पर भी लागू होता है।

तो साधकों! यह समझ लीजिए—वह कर्म कीजिए जिससे जीवन सुखी हो, और भगवान की कृपा सहज ही मिल जाए।

अब देखिए… आगे इस कथा में क्या घटता है।
क्या यदुवंश का विनाश सचमुच निश्चित है?
या फिर कोई उपाय शेष है?

✨ यही सब हम जानेंगे इस दूसरे भाग में… वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! इस प्रकार वृष्णि और अन्धकवंश के लोग अपने ऊपर आनेवाले संकट का निवारण करने के लिये भाँति-भाँति के प्रयत्न कर रहे थे और उधर काल प्रतिदिन सबके घरों में चक्कर लगाया करता था।

उसका स्वरूप विकराल और वेश विकट था। उसके शरीर का रंग काला और पीला था। वह मुँड़ मुड़ाये हुए पुरुष के रूप में वृष्णिवंशियों के घरों में प्रवेश करके सबको देखता और कभी-कभी अदृश्य हो जाता था।

उसे देखने पर बड़े-बड़े धनुर्धर वीर उसके ऊपर लाखों बाणों का प्रहार करते थे; परंतु सम्पूर्ण भूतों का विनाश करनेवाले उस काल को वे वेध नहीं पाते थे। मित्रो, काल का आना और उसका अजेय रूप इस बात का संकेत है कि वृष्णि और अंधकवंश का विनाश निश्चित था। चाहे वे कितने ही प्रयास कर लें, समय और नियति के आगे कोई टिक नहीं सकता। यह घटना हमें सिखाती है कि मनुष्य अपनी सामर्थ्य और शौर्य पर कितना भी गर्व करे, पर अंततः सबको काल के सामने नतमस्तक होना पड़ता है। काल को एक मुँड़ मुड़ाये हुए पुरुष के रूप में दिखाया गया है। इससे यह संदेश मिलता है कि काल न तो किसी का सखा है, न शत्रु—वह विरक्त साधु की तरह सबको समान दृष्टि से देखता है।

उसका काला और पीला रंग जीवन के दो पहलुओं को प्रकट करता है—काला मृत्यु और विनाश का प्रतीक है, तो पीला रोग, क्षय और क्षीणता का। अर्थात् काल केवल युद्ध में नहीं मारता, बल्कि रोग, क्षय और समय की गति से भी मनुष्य का अंत करता है।

वीर योद्धाओं का उस पर लाखों बाण चलाना और असफल होना यह दर्शाता है कि चाहे शौर्य कितना भी हो, पर समय और मृत्यु को जीत पाना असंभव है।

मित्रो, इस प्रकार, काल का यह मानवीकरण महाभारत के दर्शन को उजागर करता है—संसार का सबसे बड़ा विजेता भी काल से पराजित होता है। मित्रो, मनुष्य आज भी अपने घरों में तरह-तरह के उपाय करता है—धन, वैभव, सुरक्षा, विज्ञान और चिकित्सा के सहारे संकटों से बचना चाहता है। लेकिन जैसे यदुवंशी वीर अपने बाणों से काल को नहीं रोक सके, वैसे ही हम भी समय और मृत्यु को नहीं रोक सकते।

काला और पीला रंग आज की भाषा में बीमारी, दुर्घटना, वृद्धावस्था और अनिश्चित परिस्थितियों का प्रतीक है। कितनी भी तरक्की हो जाए, कोई तकनीक या सामर्थ्य काल को परास्त नहीं कर सकती।

इसलिए महाभारत का यह संदेश हर युग में प्रासंगिक है—
मनुष्य को अपने अहंकार, शक्ति और साधनों पर नहीं, बल्कि धर्म, सत्कर्म और ईश्वर-शरण पर भरोसा करना चाहिए।
क्योंकि काल का प्रहार अटल है, लेकिन जो धर्म में स्थित होता है, उसके लिए काल का आगमन भी भय का कारण नहीं बनता, बल्कि मोक्ष का द्वार खोल देता है। चलिए कथा में वापस आते है, वैशम्पायन जी कहते है....

अब प्रतिदिन अनेक बार भयंकर आँधी उठने लगी, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाली थी। उससे वृष्णियों और अन्धकों के विनाश की सूचना मिल रही थी।

चूहे इतने बढ़ गये थे कि वे सड़कों पर छाये रहते थे। मिट्टी के बरतनों में छेद कर देते थे तथा रात में सोये हुए मनुष्यों के केश और नख कुतरकर खा जाया करते थे।

वृष्णिवंशियों के घरों में मैनाएँ दिन-रात चें-चें किया करती थीं। उनकी आवाज कभी एक क्षण के लिये भी बंद नहीं होती थी।

सारस उल्लुओं की और बकरे गीदड़ों की बोली की नकल करने लगे।

काल की प्रेरणा से वृष्णियों और अन्धकों के घरों में सफेद पंख और लाल पैरोंवाले कबूतर घूमने लगे।

गायों के पेट से गदहे, खच्चरियों से हाथी, कुतियों से बिलाव और नेवलियों के गर्भ से चूहे पैदा होने लगे। मित्रो, इन भयंकर अपशकुनों ने स्पष्ट कर दिया था कि वृष्णियों और अंधकों का विनाश अवश्यंभावी है। प्रतिदिन उठने वाली भयानक आँधियाँ आने वाले तूफ़ान का संकेत दे रही थीं। चूहों का सड़कों पर छा जाना और मनुष्यों तक को कुतरना इस बात का द्योतक था कि समाज की नींव भीतर से गल चुकी है। मैनाओं का निरंतर शोर, सारसों का उल्लू और गीदड़ जैसी बोली बोलना, यह सब प्रकृति का अस्वाभाविक और विचित्र रूप था। यहाँ तक कि कबूतर भी लाल पैरों और सफेद पंखों के साथ घर-घर घूमते, मानो काल स्वयं दूत बनकर उपस्थित हो गया हो। सबसे विचित्र तो

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Kumar Rakesh143
Kumar Rakesh143 17 giờ trước kia

Aap mere channel ko subscribe karke mere video me comment kijiye mai bhi aapka channel subscribe kar dunga new long video me comment karna

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