जब स्वयं श्रीकृष्ण बने अपने ही वंश के विनाश के कारण |Mahabharat-6 MausalParva Ch:1 Bhag-1
जब स्वयं श्रीकृष्ण बने अपने ही वंश के विनाश के कारण |Mahabharat-6 MausalParva Ch:1 Bhag-1#mahabharat
"मित्रो!
आज मैं आपके लिए महाभारत का वह अनछुआ अंश लेकर आया हूँ, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं।
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था।
भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों और असंख्य दुष्टों का अंत कर धर्म की स्थापना कर दी थी।
युधिष्ठिर महाराज ने अश्वमेध यज्ञ किया, जो राज्य अब तक अजेय थे, वे भी पराजित हो गए।
भारतवर्ष चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर के शासन में आ चुका था।
भगवान कृष्ण ने पृथ्वी का भार उतारने के लिए अवतार लिया था—और युद्ध के बाद यह कार्य पूरा भी हो गया।
लेकिन… क्या आप जानते हैं कि महाभारत का अन्त युद्धभूमि पर नहीं हुआ?
जब धर्म की स्थापना हो चुकी थी, पृथ्वी का भार उतर चुका था, युधिष्ठिर चक्रवर्ती बन चुके थे…
तब श्रीकृष्ण ने देखा—एक बहुत बड़ा बोझ अब भी शेष है।
यह बोझ था यदुवंश।
द्वापर का युग समाप्ति की ओर बढ़ रहा था और कलियुग का प्रवेश होने वाला था।
भगवान कृष्ण ने सोचा—
सात्यकि, कृतवर्मा, अनिरुद्ध, सांब जैसे पराक्रमी वीर यदि जीवित रह गए…
तो आने वाले कलियुग के लिए यह मानवता पर भारी पड़ सकता है।
क्योंकि कलियुग में मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट होगी, धर्म का लोप होगा…
और यदि अपार शक्ति समय के साथ क्षीण न हुई, तो यह सम्पूर्ण जगत के लिए विनाशकारी होगा।
यही सोचकर भगवान कृष्ण ने निश्चय किया कि—
पृथ्वी त्यागने से पहले वे यदुवंश का नाश अवश्य करेंगे।
लेकिन… प्रश्न यह है कि कैसे?
क्या उपाय किया भगवान ने?
यह अभी मैं आपको नहीं बताऊँगा…
जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ेगी, आप स्वयं जान पाएँगे।
मित्रो! यह कथा है यदुवंश के विनाश की —
महाभारत के मौसलपर्व से लिया गया प्रसंग।
यह कथा आठ अध्यायों में विस्तृत है, इसलिए मैं इसे आपके सामने आठ भागों में प्रस्तुत करूँगा।
उम्मीद है कि यह रहस्यमयी कथा आपको पसंद आएगी और आपको बहुत कुछ सिखाएगी भी।
तो चलिए, आरम्भ करते हैं पहला भाग—
यदुवंश का विनाश | मौसलपर्व – भाग 1।"
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! महाभारत युद्धके पश्चात् जब छत्तीसवाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ तब कौरवनन्दन राजा युधिष्ठिरको कई तरहके अपशकुन दिखायी देने लगे। "मित्रो! आपको यह बताते चलूँ कि भगवान श्रीकृष्ण ने लगभग 125 वर्ष तक इस धराधाम पर रहकर ब्रह्माजी की इच्छा पूरी की—
यानी दुष्टों का संहार और धर्म की स्थापना।
इसका अर्थ यह हुआ कि जब पाण्डव द्यूत-सभा में पराजित हुए थे, उस समय उनकी आयु लगभग 76 वर्ष के आसपास रही होगी।
अब यदि इसमें 13 वर्ष का वनवास जोड़ दें तो संख्या पहुँचती है 89 पर।
यानी महाभारत युद्ध के समय अर्जुन की आयु लगभग 90 वर्ष रही होगी।
अब आप सोच रहे होंगे—
कलियुग में तो 60 वर्ष की आयु में ही लोग वृद्ध हो जाते हैं,
फिर 90 वर्ष का योद्धा युद्धभूमि में कैसे उतरा होगा?
मित्रो, इसका रहस्य युगधर्म में छिपा है।
हर युग का अपना धर्म, अपनी व्यवस्था और अपनी आयु सीमा होती है।
यह अनुमान मैं आप पर छोड़ता हूँ।
आप ही सोचिए… कितने शताब्दियों के बराबर उनके जीवन का विस्तार रहा होगा।
चलिए मित्रो, अब कथा में वापस लौटते हैं…"
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय!
बिजलीकी गड़गड़ाहटके साथ बालू और कंकड़ बरसानेवाली प्रचण्ड आँधी चलने लगी। पक्षी दाहिनी ओर मण्डल बनाकर उड़ते दिखायी देने लगे।
बड़ी-बड़ी नदियाँ बालूके भीतर छिपकर बहने लगीं। दिशाएँ कुहरेसे आच्छादित हो गयीं। आकाशसे पृथ्वीपर अंगार बरसानेवाली उल्काएँ गिरने लगीं।
सूर्यमण्डल धूलसे आच्छन्न हो गया था। उदयकालमें सूर्य तेजोहीन प्रतीत होते थे और उनका मण्डल प्रतिदिन अनेक बिना सिरके धड़ों से युक्त दिखायी देता था।
चन्द्रमा और सूर्य दोनोंके चारों ओर भयानक घेरे दृष्टिगोचर होते थे। उन घेरोंमें तीन रंग प्रतीत होते थे। उनका किनारेका भाग काला एवं रूखा होता था। बीचमें भस्मके समान धूसर रंग दीखता था और भीतरी किनारेकी कान्ति अरुणवर्णकी दृष्टिगोचर होती थी।
राजन्! ये तथा और भी बहुत-से भयसूचक उत्पात दिखायी देने लगे, जो हृदयको उद्विग्न कर देनेवाले थे। मित्रो, इन भयंकर अपशकुनों से यह स्पष्ट हो गया कि प्रकृति स्वयं आने वाले अनर्थ की सूचना दे रही थी। आकाश, दिशाएँ, सूर्य-चन्द्रमा और नदियों तक का असामान्य व्यवहार यही संकेत करता था कि अब एक महान वंश का अंत निकट है और समय का चक्र अपना कठोर निर्णय सुनाने वाला है। कथा में वापस आते है
।
इसके थोड़े ही दिनों बाद कुरुराज युधिष्ठिरने यह समाचार सुना कि मूसलको निमित्त बनाकर आपसमें महान् युद्ध हुआ है; जिसमें समस्त वृष्णिवंशियोंका संहार हो गया। केवल भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ही उस विनाशसे बचे हुए हैं। यह सब सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने अपने समस्त भाइयोंको बुलाया और पूछा - 'अब हमें क्या करना चाहिये?'
ब्राह्मणोंके शापके बलसे विवश हो आपसमें लड़-भिड़कर सारे वृष्णिवंशी विनष्ट हो गये। यह बात सुनकर पाण्डवोंको बड़ी वेदना हुई।
इस मौसलकाण्डकी बातको लेकर सारे पाण्डव दुःख-शोकमें विषाद छा गया और वे हताश हो मन मारकर बैठ गये। मित्रो !
यदुवंश के नाश की यह घटना सुनकर युधिष्ठिर गहरे दुःख में डूब गए। मूसल के शाप ने अपना असर दिखाया और शक्तिशाली वृष्णि-वीर आपस में ही लड़कर नष्ट हो गए। सोचो, जो वीर कुरुक्षेत्र में अपराजित रहे, वही अपने ही भाई-बन्धुओं के हाथों समाप्त हो गए—यह नियति की विडम्बना थी।
युधिष्ठिर ने जब सुना कि कृष्ण और बलराम को छोड़कर समस्त यादव वंश नष्ट हो चुका है, तो पाण्डवों के हृदय पर भारी आघात पहुँचा। वे असहाय और विषाद से भरे हुए सोचने लगे कि अब आगे क्या करना चाहिए।
मित्र, यही तो इस कथा का गूढ़ संदेश है—जब समय का चक्र घूमता है तो सबसे शक्तिशाली कुल भी अपने ही कर्म और नियति के हाथों मिट जाते हैं।" कथा में वापस आते है
।
जनमेजयने पूछा— भगवान् श्रीकृष्णके देखते-देखते वृष्णियोंसहित अन्धक तथा महारथी भोजवंशी क्षत्रिय कैसे नष्ट हो गये?

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