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storyteller
3 مناظر · پہلے 5 گھنٹے

रात के लगभग साढ़े बारह बज रहे थे। शहर की चमकती लाइटें धीरे-धीरे बुझ रही थीं, लेकिन एक छोटी-सी किराये की कोठरी की खिड़की से अब भी हल्की रोशनी बाहर आ रही थी। उस कमरे में बैठा था विनय—एक 22 वर्षीय लड़का, जो पढ़ाई के साथ-साथ होटल में बर्तन धोने का काम करता था।
दिन भर की थकान उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी, आंखें लाल थीं, हाथों में साबुन से पपड़ी पड़ी थी। लेकिन उसके सामने खुली थी एक पुरानी, फटी-सी किताब—“सफलता की राह”।
विनय का सपना था—सरकारी नौकरी पाना। लेकिन हालात ऐसे थे कि वह पूरे दिन मेहनत करता और रात को सिर्फ दो घंटे पढ़ पाता। बहुत लोग उसे कहते—
“इतनी थकान के बाद पढ़ाई? कब तक ऐसे चलेगा?”
पर विनय के पास एक ही जवाब था—
“जब तक मंज़िल मुस्कुरा कर न कह दे—शाबाश बेटा!”
उस रात भी वह पढ़ ही रहा था कि उसके रूममेट मनीष ने पूछा,
“यार, सो नहीं जाता? कल सुबह फिर 6 बजे होटल जाना है।”
विनय हल्के से मुस्कुराया, “अधूरी नींद तो पूरी हो जाएगी… पर अधूरे सपने कैसे पूरे होंगे?”

storyteller
3 مناظر · پہلے 16 گھنٹے

⁣झारखंड के घने जंगलों के बीच बसे छोटे से गाँव उलीहातू में 15 नवंबर 1875 को एक ऐसा बच्चा जन्मा, जिसने आगे चलकर अंग्रेज़ों को चुनौती दी और अपने लोगों के दिलों में भगवान जैसा स्थान पा लिया। वह बच्चा था — बिरसा मुंडा। बचपन से ही बिरसा दूसरों से अलग थे। तेज़ दिमाग, जिज्ञासा और असाधारण नेतृत्व क्षमता उनके अंदर साफ झलकती थी। वे जंगल के पेड़ों, नदी, मिट्टी से गहरा लगाव रखते थे। उनका मानना था कि “धरती हमारी माँ है” और उसकी रक्षा हमारा कर्तव्य। समय बीतता गया। अंग्रेज़ों ने नई जमीन नीति लागू की, जिसमें आदिवासियों की जमीन जमींदारों और बाहरी लोगों को दे दी गई। जंगलों में प्रवेश और लकड़ी काटने पर भी रोक लगा दी गई। सदियों से अपनी धरती पर जो समुदाय स्वतंत्र था, वह अब गरीबी, भूख और अन्याय के जाल में फँसने लगा। बिरसा ने यह सब अपनी आँखों से देखा। वे समझ चुके थे कि अब चुप रहना संभव नहीं। उनके भीतर एक आग जल उठी — अन्याय के खिलाफ खड़े होने की आग। युवावस्था में उन्होंने पढ़ाई के दौरान समाज में फैलते नशे, अंधविश्वास और कुरीतियों को भी देखा। उन्होंने समझ लिया कि जब तक उनका समाज जागेगा नहीं, तब तक कोई लड़ाई जीती नहीं जा सकती। यही सोचकर बिरसा ने समाज सुधार की शुरुआत की — लोगों से कहा, शराब छोड़ो, मेहनत करो, अपने अधिकार को पहचानो। धीरे–धीरे लोग उनके आसपास इकट्ठा होने लगे। किसी ने उन्हें नेता कहा… किसी ने मसीहा… और कुछ लोगों ने तो उन्हें भगवान का अवतार मान लिया। लोग उन्हें “धरती आबा” कहने लगे। और फिर आया साल 1899— जब बिरसा ने अपने लोगों को संगठित कर अंग्रेज़ सरकार और अत्याचारी जमींदारों के खिलाफ बड़ा आंदोलन छेड़ दिया। इस आंदोलन का नाम पड़ा — उलगुलान, यानी महाविद्रोह। बिरसा का नारा जंगलों में गूंजने लगा — “अबुआ दिसुम, अबुआ राज” #knowledge#life#jharkhand#history

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